Wednesday 2 January 2013

कैसे सुधरे पुलिस ? भाग 2

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कैसे सुधरे पुलिस ? भाग 1

हमारे यहाँ सब कुछ है। पुलिस बल है, कानून व्यवस्था है। सख्त कानून हैं। महिलाओं के लिए हेल्पलाइन है। दिल्ली में हर थोड़ी दूरी पर आपको एक पी सी आर वैन घूमती फिरती दिखाई दे जाएगी। है तो सब कुछ हमारे पास। पुलिस की मानें तो काम भी करता है।

हाल ही में एक टी वी चैनल पर हो रही बहस में भी सुना, एक पुलिस अधिकारी बार बार कह रही थी की पुलिस को Gender Sensitization की ट्रेनिंग दी जाती है, महिलाओं के लिए एक हेल्पलाइन है 1091 जिसपर सिर्फ महिला पुलिसकर्मी ही फोन पर होती हैं। तमाम तरह के काम पुलिस करती है, मुझे तो पता भी नहीं था की पुलिस क्या क्या करती है, उनकी बातें सुनकर ही पता चला।

दिल्ली फिर भी महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है। क्यूँ नहीं है ?

चलिए एक विश्लेषण करते हैं।

पुलिस को महिलाओं के प्रति बेहतर व्यवहार (gender sensitization) की ट्रेनिंग दी जाती है। ज़ाहिर है की पुलिस इस ट्रेनिंग के बाद मान लेती है की पुलिस वाले इस ट्रेनिंग के बाद महिलाओं से बेहतर व्यवहार करेंगे। लेकिन क्या ऐसा होता है ? मुझे नहीं लगता की होता है, शायद आपको भी नहीं लगता होगा। यानी पुलिस ट्रेनिंग ख़तम होते ही काम ख़तम हुआ मान लेती है। जिस पुलिसकर्मी को ट्रेनिंग दी गई उसके आगे के व्यवहार का विश्लेषण नहीं करती। यह कुछ ऐसा होता है की आपको स्कूल में पढ़ाया तो जा रहा है लेकिन आपकी परीक्षा नहीं ली जा रही। आपने पढ़ाई की, या नहीं की, आप पास हो गए। और फिर यह ट्रेनिंग कितने पुलिसकर्मियों को मिलती है ? यदि सबको मिलती है, तो यह ट्रेनिंग किसी काम नहीं आ रही। क्या यह बात बताने की ज़रुरत है?

महिलाओं के लिए एक हेल्पलाइन है 1091, फिर भी हाल ही में एक और हेल्पलाइन 181 शुरू की गई है। क्यूँ भई, अगर नंबर बढ़ा देने से महिलाएं सुरक्षित हो सकती हैं तो मैं तो कहता हूँ की 2 क्या 1000-2000 नंबर खोल दीजिये खर्च भी ज्यादा नहीं आएगा। असलियत तो यह है की मंशा यह नहीं है की महिलाएं सुरक्षित हो जायें। मंशा यह है की यह दिखाया जाये की हम कुछ कर रहे हैं।

पुलिस की पी सी आर वैन भी दिल्ली में बहुतायत से हैं।  इधर उधर घूम रही हैं। अक्सर देखता हूँ की उनमें बैठे पुलिसकर्मी रात में छोटी मोटी चाय - बीडी की दूकान बंद करवाते रहते हैं। उन्हें पेट्रोल जलाने और गाडी का मीटर बढाने के लिए गोल गोल चक्कर लगाते भी देखा है, लेकिन उनके सामने ही कोई, किसी लड़की का पर्स उड़ा ले, या 5-7 लड़के लड़कियों के साथ छेडछाड कर रहे हों तो वे क्या करते हैं? रिपोर्ट लिखवाने की सलाह देते हैं? सबसे पहले आपकी गलती बताते हैं फिर रिपोर्ट लिखने में आनाकानी, और अगर लिख भी गई तो उसपर कितनी कार्यवाही होती है ये सबको पता है। इसलिए आप रिपोर्ट ही नहीं लिखवाते। पुलिस का काम आसान हो जाता है।


इस समस्या का निदान कैसे हो?

पुलिस का यह सोच लेना की उनका कोई कदम उठाना ही समस्या का समाधान होता है, ऐसा है जैसे बिल्ली को देख कर कबूतर का आँखें बंद कर लेना और सोचना की बिल्ली है ही नहीं। अगर पुलिस अपने कर्मियों को कोई ट्रेनिंग देती है तो इसकी समीक्षा होना बहुत ज़रूरी है की उस ट्रेनिंग का कोई फायदा हुआ भी है या नहीं? कोई हेल्पलाइन खोलती है तो यह देखना की उस हेल्पलाइन से लोगों को वाकई मदद मिल भी रही है या नहीं? पुलिस की पी सी आर वैन घूम रही हैं तो वे सिर्फ घूम ही रही हैं या पूरे दिन में उन्होंने कुछ किया भी है।  पीसीआर वैन में कैमरा नहीं होता, पूरे दिन वैन क्या करती रही इसको जानने का क्या तरीका है? लेकिन यहाँ सबसे बड़ी समस्या है की पुलिस खुद ही अपनी कमियाँ नहीं ढूंढ रही। वह माने बैठी है की उसके कर्मी तो 3-3 दिन तक लगातार काम करते हैं, उनपर बहुत बोझ है .. काम के घंटे तो गिनने की व्यवस्था तो उनके पास है लेकिन उन घंटों में काम कितना हुआ और किस तरह हुआ इसे जानने के लिए उनके पास कोई कार्यप्रणाली नहीं है। कितनी FIR लिखी गई और कितनी केस सुलझाये गए, यह जानने के लिए उनके पास आंकड़े हैं, लेकिन कितनी FIR लिखने से मना कर दिया गया, यह जानने के लिए उनके पास कोई कार्यप्रणाली नहीं है। शायद वह जानना भी नही चाहती। इस स्तिथि से बाहर आने का कोई रास्ता भी है या नहीं?

क्या यह ज़रूरी है की हम अपनी शिकायत लेकर पुलिस के पास ही जायें? क्या कोई दूसरी संस्था नहीं हो सकती जो लोगों की शिकायतें दर्ज करे और उन शिकायतों पर पुलिस को कार्यवाही करने के लिए कहे? हम FIR लिखवाने पुलिस थाने जायें यह ज़रूरी तो नहीं। यह काम तो कोई दूसरी संस्था भी कर सकती है। साथ ही वह यह भी कर सकती है की हमसे इस बात की जानकारी ले की हमारी शिकायत पर संतुष्टिपूर्ण कार्यवाही की गई या नहीं। कोई पुलिस अधिकारी यदि भ्रष्टाचार करता है तो वह संस्था उस भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही करे। जन्लोकपाल कानून बनाने के पीछे कुछ ऐसी ही मंशा रही है। लेकिन अगर जन्लोकपाल कानून नहीं भी बन रहा तो क्या हम ऐसे ही बैठे रहे और इंतज़ार करें। शायद जबतक ऐसी कोई संस्था बनकर तैयार होगी तबतक कानून व्यवस्था ख़तम हो चुकी हो। सरकार को चाहिए की वह ऐसी कोई संस्था बनाए और लोगों को चहिये की वे इसके लिए आवाज़ उठाएं। कबतक यह दिखावा चलता रहेगा की सब "ठीक है !"

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इन्साफ नहीं होगा !


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Sunday 30 December 2012

कैसे सुधरे पुलिस ? भाग 1

कैसे सुधरे पुलिस ?
यह एक दुखद बात है की हमारी पुलिस जो की कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए है उसका ढांचा एवं कार्यप्रणाली अंग्रेजों के समय में तय हो गई थी और आज भी जिसमें ज्यादा फर्क नहीं आया है। पुलिस को कानून और व्यवस्था बनाए रखनी है लेकिन न तो उसकी जवाबदेही देश की जनता के प्रति है और न ही उसका व्यवहार ऐसा है की लोग पुलिस के पास जाना और अपनी शिकायत करना सुलभ और सहज समझते हों।


लोग पुलिस के पास जाने से कतराते हैं। जो जुड़ाव पुलिस और लोगों के बीच में होना चाहिए वह जुड़ाव कहीं है ही नहीं। लोगों के मन में पुलिस की जो छवि है वह एक ऐसी संस्था की है, जो शोषण करती है। यही कारण है की लोग पुलिस के पास जाने से कतराते हैं। शायद यह बात लोगों के मन में कहीं बैठ गई है की अगर वे पुलिस के पास जायेंगे तो एक तो पुलिस उनकी बात सुनेगी ही नहीं और कहीं न कहीं उनके मन में ये डर भी बैठा हुआ है की कहीं पुलिस उन्हें ही न ज़िम्मेदार ठहराने लगे। लोग किसी अपराध के मामले से खुद को दूर रखना ही पसंद करने लगे हैं, इसीलिए यदि वे किसी बलात्कार पीड़ित को सड़क पर निर्वस्त्र पड़ा हुआ देखते हैं तो उसे अपनी कमीज़ से ढक देने में भी डरते हैं की कहीं पुलिस उन्हें ही अपराधी न घोषित कर दे। किसी सड़क दुर्घटना में पीड़ित को सड़क पर पड़ा हुआ देख, उसे अपनी गाडी में ले जा कर अस्पताल में भारती करवा देने से डरते हैं की कहीं उन्हें ही न दोषी करार दे दिया जाए, दोषी न भी करार दिया जाये तो आगे होने वाली असुविधा से खुद को बचाने के लिए वे खुद को उस मामले से अलग रखने में ही अपनी भलाई समझने लगे हैं। आज के समय में जहां घर और नौकरी के जिम्मेदारियों के बीच अपने लिए समय निकालना कठिन है। वहाँ लोग किसी की इस प्रकार मदद करने से कतराने लगे हैं। उन्हें पता नहीं की किसी सड़क दुर्घटना में पीड़ित को अस्पताल पहुचाने के बाद उन्हें कब कब, और कहाँ कहाँ अपनी हाजरी भरनी पड़ेगी। जिस इंसान के पास अपने बीवी बच्चों के लिए पर्याप्त समय न हो वह ऐसी जिम्मेदारियों से कतराने लगा है। इसमें उसकी कितनी गलती है कहा नहीं जा सकता।
लेकिन इस हालत की ज़िम्मेदार पुलिस की कार्यप्रणाली और व्यवस्था तो बिलकुल है। कैसे बदले ये कार्यप्रणाली ? कैसे लोग जुड़ पायेंगे पुलिस से ? यदि पुलिस और लोगों के बीच में आपसी तालमेल हो तो अपराध तो वैसे ही कम हो जायेंगे।
लोग अक्सर शिकायत करते हैं की पुलिस उनकी सुनती नहीं है। उनकी FIR नहीं दर्ज करती। क्यूँ नहीं करती ? हमारे यहाँ एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पुलिस के कार्य की समीक्षा आंकड़ो पर आधारित है। कितने केस रजिस्टर हुए? उनमें से कितने केस हल हुए? कितने समय में हल हुए? ऐसे आंकड़े ही बताते हैं की पुलिस अच्छा काम कर रही है या नहीं। लेकिन ये आंकड़े आते कहाँ से हैं? पुलिस की अपनी फाइलों से। खुद ही पुलिस केस रजिस्टर करे, खुद ही करे तहकीकात। तो पुलिस ऐसे केस रजिस्टर ही क्यूँ करे जिनकी तहकीकात करने में उसे परेशानी हो? स्टाफ की कमी भी इसकी एक वजह हो सकती है। पुलिस के पास स्टाफ की कमी हो तो उसकी कोशिश हो सकती है की वह उतने ही केस रजिस्टर करे जितने केस वह अपने मौजूदा स्टाफ के द्वारा निपटा सके। इससे एक ऐसे चक्रव्यूह की रचना होती है जिससे बाहर निकलना पुलिस के लिए भी उतना ही मुश्किल है जितना की जनता का उस चक्रव्यूह को तोडना।
यदि पुलिस की फाइलों में केस कम हैं तो उसे स्टाफ की कमी क्यूँ है? यदि स्टाफ की कमी है तो पुलिस के पास ऐसे केस होने चाहिए जो वह स्टाफ की कमी के चलते निपटा नहीं पा रही? यदि किसी पुलिस अधिकारी के पास अनसुलझे केस हैं तो उसकी गलती हो जाती है की वह ठीक से अपना काम नहीं कर रहा। इस चक्रव्यूह से कैसे निकले पुलिस?
लोगों की FIR रजिस्टर न करने से कागज़ पर भले ही सब ठीक हो, लेकिन असलियत में तो ऐसा है नहीं ना। हम एक ऐसी ही व्यवस्था में फँस गए हैं जहां सरकारी संस्थाओं में कागज़ पर सब ठीक होने का प्रचलन हो गया है। लेकिन असलियत कुछ और ही है। इसलिए पुलिस, प्रशासन और सरकारें लोगों को संतुष्ट नहीं कर पा रही। वे बस कागजों और उनपर मौजूद आंकड़ों में ही उलझी रह गई हैं, जहां सब कुछ ठीक है।


TO BE CONTINUED.....

कैसे सुधरे पुलिस ? भाग 2




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इन्साफ नहीं होगा !

23 साल की एक मेडिकल छात्रा का 16 दिसम्बर को दिल्ली में रेप हुआ। रेप के अलावा भी उस लड़की के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया जिसके कारण उसकी तड़प तड़प कर मृत्यु हो गई। लेकिन इस लड़की ने जैसे दिल्ली को सोते से जगा दिया। इस घटना के दौरान जैसा प्रदर्शन सामने आया वैसा शायद मैंने अपने जीवनकाल में नहीं देखा, न ही सुना। बिना किसी नेता या झंडे के, जनता प्रदर्शन करने लगी, और सरकार से मांग करने लगी की उन्हें इन्साफ चाहिए। क्या है ये इन्साफ? क्या इस जनता को सिर्फ इस एक घटना के लिए इन्साफ चाहिए या हर उस घटना के लिए इन्साफ चाहिए जो हमारे देश में आये दिन होती रहती हैं?
यह कोई पहली घटना नहीं है जिसमें किसी लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी हत्या की गई हो। ना जाने मैंने ऐसी कितनी ही खबरें पढ़ी हैं। मुझे याद नहीं की कभी मैंने अखबार पढ़ा हो और उसमें एक बलात्कार की घटना का वर्णन न हो। हमारे देश में बलात्कार की घटना वैसे ही आम खबर है जैसे की भ्रष्टाचार या घोटालों की।

लोगों को इन्साफ चाहिए। हर किसी की सोच में ये इन्साफ अलग अलग है। किसी के लिए ये इन्साफ है की इस घटना के कसूरवार लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया जाए। कुछ थोडा और आगे बढ़ जाते हैं और चाहते हैं की उनको चौराहे पर खड़ा कर फांसी दी जाए। क्या यही इन्साफ है? इन्साफ वह होता है जिससे एक तो कसूरवार को सज़ा मिले दूसरा एक ऐसा सन्देश जाए जिससे कोई दूसरा वही अपराध न दोहराए। और सबसे ज़रूरी बात ये की सज़ा हर एक अपराधी को मिले जो कोई भी उस अपराध का कसूरवार है। और एक बहुत ही ज़रूरी बात ये की सज़ा जल्दी मिले। जवानी में किये गए अपराध के लिए यदि बुढापे में सज़ा मिले तो सज़ा का मतलब ही क्या रह गया?
लेकिन क्या लोगों के इन्साफ मांगने का मतलब ये है की वे सिर्फ एक लड़की के लिए इन्साफ मांग रहे हैं? नहीं, वे हर उस लड़की के लिए इन्साफ मांग रहे हैं जिसके साथ बलात्कार हुआ है। कैसे मिलेगा यह इन्साफ?
क्या सभी बलात्कार के आरोपियों को फांसी पर चढ़ा देना चाहिए? नहीं, आरोपी मुजरिम नहीं होता, जबतक यह सिद्ध न हो जाये की आरोपी ने बलात्कार किया है, कोई उसे फांसी क्या, एक दिन की जेल भी दे तो वह नाइंसाफी होगी। ज़रूरी है की कड़ी सज़ा मिले और सज़ा केवल मुजरिम को ही मिले, कोई बेगुनाह झूठे आरोप में फंस कर सज़ा न पाए।
बस यही एक वजह है जिसकी वजह से बलात्कार के मामलो में इन्साफ नहीं मिल पाता। कौन बेगुनाह है और कौन गुनाहगार इस बात का फैसला कर पाने में इतनी देर हो चुकी होती है की तबतक बेगुनाह का जीवन बर्बाद हो जाता है, और गुनाहगार नए गुनाहों की एक लम्बी फेहरिस्त तैयार कर देता है। क्यूँ होती है यह देर? क्यूंकि हमारे यहाँ अदालतों के पास समय ही नहीं है। केस ज्यादा हैं और जज और अदालतें कम। बलात्कार के मामले में फांसी की सज़ा रख देने से इन्साफ नहीं होगा, क्यूंकि फांसी देने के लिए पहले आरोप को सिद्ध होना पड़ता है। जबतक आरोप सिद्ध होता है, तबतक बहुत देर हो चुकी होती है। और यदि कोई बेगुनाह ऐसे मामले में फंस जाता है तो उसके बेगुनाह सिद्ध होने से पहले ही वह बर्बाद हो चुका होता है। आवशक है की ऐसे केस के फैसलों की समय सीमा तय हो और उस समय सीमा में केस के निपटारे के लिए अदालतें और जजों की संख्या बढाई जाए। 
लेकिन जाने क्यूँ इस बात को हमेशा किनारे कर दिया जाता है। सब कुछ हो जायेगा लेकिन अदालतें नहीं बढाई जाएँगी, जज नहीं बढाए जायेंगे। इन्साफ के कुछ और रास्ते खोज लिए जायेंगे जिनसे इन्साफ का दिखावा तो होगा लेकिन इन्साफ नहीं होगा।

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कैसे सुधरे पुलिस ? भाग 1